राजगढ़ मेला इतिहास

1950 के दशक की बात है। जानेमाने लाला मंशाराम जी सूद के जब लड़कियाँ ही होने लगी तो किसी ने सलाह दी, शाया के शिरगुल महाराज से मन्नत मांगो वे अवश्य पुत्र रत्न देंगे। सच्चे मन से मन्नत मांगी और पुत्र प्राप्ति हो गई। लाला मनशा राम जी ने सरोट की धार पर शिरगुल का मन्दिर बनाया और शिरगुल महाराज को विराजित किया तथा शिरगुल देवता के नाम से बैशाख 1 गते से वहीं सरोट की ऐतिहासिक धार (यहाँ से अंग्रेजी सेना ने प्झोता क्रांतिकारियों पर 1600 गोलियां दागी थी) पर मेला भी लगाना आरम्भ किया। वहां पानी की दिक्कत और स्थान कम होने के चलते, 1962 या 63 के लगभग मेले को आज के नेहरु मैदान में लाया गया। इस मेले के हम भी प्रत्यक्ष दर्शी है जब इतना अंधड़ तूफ़ान और बारिश हुई की पंडाल भी उखड़ने लगे। तभी मेला कमेटी ने मेला स्थान बदलाव के चलते शिरगुल का कोप समझा और शायद बकरे की बलि दी। उसके बाद मौसम साफ़ हुआ और आतिश बाजी का आनन्द उठाया। यहाँ (नेहरु ग्राउंड) मेला लगाने में सबसे बड़ा योगदान, स्थानीय जमींदार ठाकुर तुलसीराम जी का रहा जिन्होंने गेहूं की लगी फसल को रौंदने दिया। और शायद उसके बाद उन्होंने इसे निशुल्क ग्राउंड को दे दिया। इस ग्राउंड और मेले के लिए हमें मंशाराम जी और तुलसीराम जी के सबसे अधिक आभारी होना चाहिए। आजकल भव्य शिरगुल मन्दिर भी मेला ग्राउंड के सिरे पर बन चुका है।
इनसेट में लाला मनशा राम जी। इनके अलावा फोटो में दिखे लगभग सभी का योगदान मेला आयोजित करने में रहा।
नेहरु ग्राउंड में आयोजित प्रथम मेले में हर विभाग की प्रदर्शनी लगी हुई थी। सांस्कृतिक कार्यक्रम में स्थानीय कलाकारों को अधिक समय दिया गया था। रेड मून इंडस्ट्री के मालिक लाल चंद जी वल्याट ने प्रोजेक्टर से पहली फिल्म दिखाई थी।
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ऐतिहासिक तथ्य......
राजगढ़ मेले से पहले यही मेला कुफ्फर धार (कुलथ से ऊपर) लगा करता था जिसे कुफ्फरे र प्लेच कहते थे जो परम्परागत मेला था। इसी तारीख को राजगढ़ में भी शुरू हो गया। बल्कि राजगढ़ स्कूल के बच्चे यहाँ PT शो दिया करते थे। लोग असमंजस में रहने लगे कि कहाँ जाएँ और कुफ्फर धार तथा राजगढ़ के दोनों मेले लगते रहे और अंत में कुफ्फर का मेला बंद हो गया।

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