धणेरा

यह धणेरा है, चांदी से निर्मित।
इसे क्यों धणेरा कहते हैं, इस पर शोध किया तो काफी रोचक तथ्य सामने आए I कभी समय था जब किसी देवता को धूप दीप देने यानि पूजा में प्रयोग होने वाली सामग्री को प्रज्जवल्लित करने के लिए, साधारण अग्नि नहीं बल्कि त्रियुगी नारायण अग्नि का प्रयोग किया जाता था। यह अग्नि केदारनाथ से आगे गौरीकुंड से लाई जाती थी जिसे यहां लाकर धूणे के रूप में हर समय जलाकर रखा जाता था। पुजारी लोग उसी धूणे से अग्नि ले जाकर धूप देते थे और उसे धूणा देना कहते थे। 
इसी लिए पूजने वाले पात्र को धूणा देने वाला यानि धणेरा नाम पड गया। इस धणेरे में देव चंदन, कत्रचार, बूं तथा गाय का घी डाला जाता है जिस पर उस समय धूणे से मगर आज चुल्हे से निकाले गए सुलगते अंगार रखे जाते हैं। उनके जलने से निकलने वाला धूंआ ही देवता की पूजा में धूप का काम करता है जबकि वातावरण में औषधीय सुगंध फैला देता है। त्रियुगी नारायण अग्नि की जानकारी पं० वेदप्रकाश ने दी। उनके अनुसार, कत्रचार और देवचंदन चूडधार के जंगलों से वर्षभर में एकबार जा कर लाया जाता है जबकि बूं नामक घास स्थानीय तौर पर मिल जाती है।

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